” बस! बस! और नहीं.. हो गया! एक रोटी मैं कम ही खाऊंगा.. वो तेरी कुल्फ़ी भी तो खानी है!”।
जॉइंट परिवार था.. हमारा! तो जब भी गर्मियों की छुट्टी में जाना होता था.. सभी सदस्यों के भोजन के होने के बाद ही.. आख़िर में माँ और पिताजी खाया करते थे।
जिनको कभी-कभी अपने हाथ की कुल्फ़ी का स्वाद लिए
. खाना मैं ही परोसा करती थी।
माँ-बापू दोनों की favrioute थी.. मेरे द्वारा बनाई गई.. कुल्फ़ी।
सीखी तो माँ से ही थी.. पर अक्सर हर गर्मियों की छुट्टियों में, मैं ही बनाया करती थी।
” आज कुल्फ़ी बनाएं क्या..!”।
” हाँ! देख लो! बना लो.. तुम्हारी मर्ज़ी.. अच्छी लगती है.. गर्मियों में!”।
माँ हा मी भर दिया करतीं थीं..
तेज़ी से हाथ में दो छोटी-छोटी सी कैन लेकर दौड़ा करते थे.. mother dairy की तरफ़।
दिल्ली की mother dairy का स्वाद.. है.. बहुत बढ़िया!
Mother dairy के बूथ पर टोकन ले.. लाइन में खड़े हो जाया करते थे. केन को मिल्क बूथ के नीचे लगा.. दूध आने का इंतेज़ार किया करते थे..
वो मोटी सी सफ़ेद रंग की दूध की धार.. केन में गिरती हुई.. मस्त लगा करती थी।
” दूध को हिसाब से गाढ़ा करना!”।
घर आते ही केन का दूध भगोने में पलट मैं गैस पर गाढ़ा होने रख दिया करती थी। और माँ बाजू के कमरे से बीच-बीच में कुल्फ़ी बनाने को लेकर डायरेक्शन देतीं चलतीं थीं।
कुल्फ़ी बनाने के लिए.. सबसे पहले जो भगोना हम इस्तेमाल करते हैं.. वो एल्युमीनियम का ही होना चाहिये.. नहीं और किसी बर्तन में दूध लग जाता है.. सारे दूध में जले की गंध फेल जाती है.. जो खाने लायक नहीं रहती।
गैस में पाँच किलो वाले.. अलुमिनियम के पतीले में दूध तेज़ आँच पर रख.. कुल्फ़ी बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाया करती थी।
तेज़ आँच पर दूध को ढक कर रख दिया करती.. और बीच-बीच में ध्यान रखते हुए.. प्लेट हटाकर देखा करती थी.. जैसे ही दूध में उबाल आता.. गैस को मध्यम आँच पर कर.. हाथ में बड़ा हत्थे वाला चमचा लेकर.. जिससे मेरे हाथ न जलें.. लगातार चलाती रहा करती थी..
दूध उबलता रहता.. और लगातार चमचे से चलाया भी जाता था.. दूध गाढ़ा होने पर उबलते हुए.. अपना रंग बदलने लग जाया करता था.. यानी के हल्का सा गुलाबी रंग का होना शुरू हो जाता था..
अब दूध को चलाते हुए.. ही मैं इसको चख कर देखती.. गाढ़े होते हुए.. दूध में viscousity आते ही उसे दस से पंद्रह मिनट और गाढ़ा करना होता है.. नहीं तो दूध में मलाई आनी शुरू हो जाती है.. जिससे कुल्फ़ी का स्वाद ज़्यादा मलाईदार हो जाता है.. अधिक मलाइदार कुल्फ़ी थोड़ा कम ही भाती है।
तो बस! जैसे ही गुलाबी रंग का दूध viscous हो जाता.. उसे दस से पंद्रह मिनट तक चलाते हुए.. और उबालने के बाद उसमें मैं.. खुशबू के लिए.. करीबन आठ इलायची कूटकर.. क्योंकि दूध पाँच लीटर होता था.. और करीबन आधा गोला कसकर डाल दिया करती थी।
इस इलायची, गोले वाले बढ़िया गुलाबी रंग के दूध को गैस से नीचे उतार कर.. ठंडा होने रख देती..
हाँ! जब हमारा दूध गाढ़ा हो जाय.. तभी उसमें स्वाद अनुसार चीनी डालकर उसे तेज़ आँच पर शुरू से हिलाते हुए.. उबालें.. जिससे जो चीनी पानी छोड़े.. वो जल जाए.. नहीं तो चीनी का पानी कुल्फ़ी की softness को कम कर देगा।
गाढ़ा बढ़िया खुशबूदार दूध.. आख़िर में.. मैं.. एल्युमीनियम के कुल्फ़ी के आकार के साँचों में भर-भर कर फ्रीजर में रख दिया करती.. प्लास्टिक वाले साँचों से एल्युमीनियम के साँचों में कुल्फ़ी अच्छी जमती है।
” बुआ! देखो न निकाल कर.. अब तो जम गई होगी.. कुल्फ़ी!”।
बच्चों और बड़ों सबकी मनपसन्द कुल्फ़ी के सांचों को हल्का-हल्का सा पानी में भिगोकर निकाल.. सबको बांटा करती।
बाज़ार वाली कुल्फ़ी को मात किया करती थी.. हमारी यह प्यार भरी recepie से बनाई गई.. स्वादिष्ट कुल्फ़ी!
” तू तो एकदम ही प्रोफेशनल कुल्फ़ी बनाती है! भई.. मैं तो बेईमानी की एक और खाऊँगा!”।
पिताजी के यह प्रशंसा में कहे गए.. कुल्फ़ी के लिए.. प्यार भरे शब्द मुझे हर बार कुल्फ़ी बनाते हुए.. याद आते हैं।