“अगला स्टेशन राजौरी गार्डन है!”।
मेट्रो ट्रेन में लगातार स्टेशनों की अनाउंसमेंट होती चल रही थी.. पर हमारे कानों में जूं तक नहीं रेंग रही थी.. क्योंकि ये निगाहें दूर वहीं कहीं जा अटकी हुईं थीं.. जहाँ हम पिताजी से मुलाकात कर वापस लौट रहे थे.. कारागार no 7
एक शरीफ़ और सच्चे इंसान का उस माहौल में रहना आसान न था.. पर पिताजी सच के साथ थे.. कह दिया था..” झूठ बोल रहें हैं.. ये लोग! मैं सही हूँ! और रहूँगा भी! झूठ बोलकर केवल पैसा ऐंठना चाहते हैं!”
कुछ अच्छा नहीं है! और कुछ बुरा भी नहीं है!.. दुनिया आनी-जानी है! जीवन दो दिन का मेला ही तो है.. परमात्मा का दरबार है.. पिताजी ने मुलाकात के वक्त कहा था।
पैसे के कुछ लालची लोगों ने झूठा मुकदमा चला कर पिताजी को फंसा दिया था.. लिया गया फैसला पूरी तरह से ग़लत था..
पर हम सबसे अलग और समाज से इस स्थान पर अपना समय अजनबी समाज में वो किस तरह से निकाल रहे थे.. उन्हें देखकर अंदाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता था.. पिताजी के चेहरे की मुस्कुराहट, आत्मविश्वास और परमात्मा में अखंड विश्वास ने उस स्थान की परिभाषा को ही बदल कर रख दिया था.. अब हमारा हमारे मकान no 6 में नहीं बल्कि पिताजी के साथ वहीं कारागार no 7 में अपनी छुट्टी बिताने का मन हो आया था.. जो कि केवल एक ख़याल ही हो सकता था..
समय तो अपनो के संग अच्छा बिता था.. पर हमारी निगाहों में पिताजी और उनके स्थान के चित्रण के अलावा और कुछ नही था.. अपना पूरा सफ़र तय कर.. हम अपने स्थान पर पहुँच गए थे.. पर फ़िर भी निग़ाहों में वही चित्रण था।