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वो ख़त

रोज़ ढूँढने लगती हूँ वो ख़त–जो तूने कभी लिखा ही नही।
रोज़ लिखती हूँ जवाब उसका–जो तुम तक कभी
पहुँचा ही नही।
रोज सोचती हूँ उस ख्वाब की ताबीर–जो कभी देखा ही नही।
रोज़ गुनगुनाती हूँ वो गीत उल्फत का-जो तूने कभी गाया ही नही।
रोज सुनती हू वो फसाना—जो तूने कभी सुनाया ही नही।
रोज महसूस करती हू वो आँसू–‘जो तूने कभी बहाया ही नही।
किस किस बात का जिक्र करू —जब तूने मुझे अपनाया ही नही।
surinder kaur

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